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कविता

ख्वाबीदा...

मृत्युंजय


किसी अनायास दिन
यूँ ही
तुमको याद करते-करते दूर कहीं रो पड़ूँगा
अकेले में निर्वासित
दुख के भँवर में डूब जाएगी देह
उदास, गहरी और मटमैली

मौत आएगी समझाइश करती कि चलो
तुम मुझसे दूर होगी
यों निचाट सभ्य किसी ऊसर में होगी मौत
सत्तर तल्ला मकान में उदास पड़ी होगी लाश
तुम तक पहुँचेगी खबर बहुत देर में
मैं कहीं दूर जा रहा होऊँगा।

मैं अपनी देह को आखिरी नजर से भरपूर देख कर
बहुत हताश था।
उस पर तुम्हारे होठों के निशान बहुत कम बचे थे
बासी त्वचा तुम्हारी स्मृतियों को झटक रही थी
आँखें खुली तो थीं पर उनमें तुम नहीं थीं
तुम क्या, कोई अक्स नहीं था

मैं चाहता हूँ
मुझसे पहले मौत तुम्हें चुने।
प्रेमी होने के नाते साथ मरने का मन है
तुम्हारे सामने मरने का इस जनम में कोई रास्ता नहीं सूझता
अगला जनम ऐसा ही नहीं होगा
कौन कहे?

अब जिंदगी भर की अकेली पूँजी
टूटे मोबाइल की आवाजों में समेट कर
जब भी मिलाओगी मेरा नंबर
हमेशा टूँ-टूँ की व्यस्त आवाज कानों को चुभेगी
कट जाएगा फोन
आवाज के परदे फट जाएँगे

जब दिल ही नहीं रहेगा
तब धक्-धक् कहाँ सुनोगी।

 


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